Tuesday, 1 May 2012

एहसास -ऐ-महब्बत


 महब्बत का हमें एहसास ग़र दिल वा दिया होता |
हमारी आर्ज़ू ने  ज़हर  फिर  ये  क्यूँ  पिया   होता ||

हमेशा   राह   का   रोड़ा   बनी   नादानियाँ  उनकी |
भरोसा हमने तो उन पर कभी का कर लिया होता ||

पता चलता तभी तो भाव  तुमको  दाल  –आटे  का |
कभी भी जेब से ख़  र्चा  अगर  अपनी  किया  होता ||

तुम्हारी आँख में तक़लीफ़  का  अफ़सोस  हमको है |
हमारे ख़त को क़ासिद से हीफिर पढ वा लिया होता ||

हमारे  मुल्क  की  तस्वीर   का   रंग  और   ही  होता |
मसीहा ‘बोस ’के  जैसा  अगर कुछ दिन जिया होता ||

हमें भी आज मिलता ख़ुद की औलादों से वो सब कुछ |
अगर हमने भी अपने बाप को सब कुछ   दिया  होता ||

बिठा लेता ज़माना उसको सर  आँखों  पे  इज़्ज़त  से |
मगर ‘सैनी’ने कोई  काम  तो  ढंग  का   किया  होता ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

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