महब्बत का हमें एहसास ग़र दिल वा दिया होता |
हमारी आर्ज़ू ने ज़हर फिर ये क्यूँ पिया होता ||
हमेशा राह का रोड़ा बनी नादानियाँ उनकी |
भरोसा हमने तो उन पर कभी का कर लिया होता ||
पता चलता तभी तो भाव तुमको दाल –आटे का |
कभी भी जेब से ख़ र्चा अगर अपनी किया होता ||
तुम्हारी आँख में तक़लीफ़ का अफ़सोस हमको है |
हमारे ख़त को क़ासिद से हीफिर पढ वा लिया होता ||
हमारे मुल्क की तस्वीर का रंग और ही होता |
मसीहा ‘बोस ’के जैसा अगर कुछ दिन जिया होता ||
हमें भी आज मिलता ख़ुद की औलादों से वो सब कुछ |
अगर हमने भी अपने बाप को सब कुछ दिया होता ||
बिठा लेता ज़माना उसको सर आँखों पे इज़्ज़त से |
मगर ‘सैनी’ने कोई काम तो ढंग का किया होता ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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