Thursday, 10 May 2012

साक़िया तेरा दर


दर्द -ओ -ग़म जब मिले इस जहां से साक़िया तेरा दर याद आया |
इक हवेली से रुसवा हुए तो  हमको  अपना  वो  घर  याद  आया ||

जब भी गुज़रा मैं उस रहगुज़र से जिससे जुडती है तेरी गली  भी |
जो न मिलने की खाई क़सम थी रोज़ उसका ही  डर  याद  आया ||

आसमाँ  की  बलंदी  को  छू  कर  मैंने समझा  ख़ुदा  हो  गया  मैं |
जब  ज़मीं  पे  गिरा  तो  ख़ुदा  फिर  देर  से  ही मगर याद आया ||

गावँ में  जब गया आज अपने अजनबी सी लगी  सब  की  सूरत |
छावँ में जिसकी जमती थी महफ़िल वो पुराना शजर याद आया ||

सब सुनाते कलाम अपना -अपना लोग देते थे  इस्लाह  सबको |
आज  ‘सैनी ’को  सूने  अदब  में  शायरों  का   हुनर  याद आया ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

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