दर्द -ओ -ग़म जब मिले इस जहां से साक़िया तेरा दर याद आया |
इक हवेली से रुसवा हुए तो हमको अपना वो घर याद आया ||
जब भी गुज़रा मैं उस रहगुज़र से जिससे जुडती है तेरी गली भी |
जो न मिलने की खाई क़सम थी रोज़ उसका ही डर याद आया ||
आसमाँ की बलंदी को छू कर मैंने समझा ख़ुदा हो गया मैं |
जब ज़मीं पे गिरा तो ख़ुदा फिर देर से ही मगर याद आया ||
गावँ में जब गया आज अपने अजनबी सी लगी सब की सूरत |
छावँ में जिसकी जमती थी महफ़िल वो पुराना शजर याद आया ||
सब सुनाते कलाम अपना -अपना लोग देते थे इस्लाह सबको |
आज ‘सैनी ’को सूने अदब में शायरों का हुनर याद आया ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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