Thursday, 10 May 2012

तुम जो अपने


तुम जो अपने चेहरे को  बार -बार  ढकते  हो |
यार  कैसे  बुज़दिल  हो  आईने  से  डरते  हो ||

तलि्ख़यां तो पैदा की पहले ख़ुद फ़ज़ाओं  में |
अब खुली हवाओं के  प्यार  को  तरसते  हो ||

गीत  जिनमें  गाते  थे  हुस्न  की   बड़ाई  के |
अब क्यूं  उन रकीबों की हरकतों से डरते हो ||

तज़किरे जो करते हो   अपनी ही शराफ़त के |
वो भी कम नहीं तुमसे जिनसे बात करते हो ||

उनको जो शिकायत है देखता है क्यों तुमको |
‘सैनी’के लिए तुम तो कह दो बस सवंरते हो ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

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