तुम जो अपने चेहरे को बार -बार ढकते हो |
यार कैसे बुज़दिल हो आईने से डरते हो ||
तलि्ख़यां तो पैदा की पहले ख़ुद फ़ज़ाओं में |
अब खुली हवाओं के प्यार को तरसते हो ||
गीत जिनमें गाते थे हुस्न की बड़ाई के |
अब क्यूं उन रकीबों की हरकतों से डरते हो ||
तज़किरे जो करते हो अपनी ही शराफ़त के |
वो भी कम नहीं तुमसे जिनसे बात करते हो ||
उनको जो शिकायत है देखता है क्यों तुमको |
‘सैनी’के लिए तुम तो कह दो बस सवंरते हो ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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