Thursday, 19 April 2012

मान जाने से


शिकायत मिल रही है रोज़ मुझको दिल दीवाने से  |
नहीं  तुम  बाज़  आते  हो अभी  भी  आज़माने  से ||

मुझे  भी पूछना है आज  तो बस इस   ज़माने   से |
भला क्या फ़ायदा है इश्क़   वालों  को  सताने  से ||

तुम्हारी  लखनऊ  आने की दावत  मान  लूं  कैसे |
शुगर  जाती है बढ़ मेरी दशहरी   आम   खाने  से ||

जलाता  है लहू  मजदूर  दिन भर धुप में जल कर |
जलन  क्यूँ  आपको  है उसके बिरयानी पकाने से ||

उन्हें   बाज़ार    जाना   है  ज़रा  सामान  ला ना  है |
उन्हें तो  चाहिए  छुट्टी   किसी  भी बस बहाने  से ||

वजूद अपना हमेशा दुन्या  में  हम   छोड़  जाते  हैं |
मिटा क्या आज तक कोई किसी के भी मिटाने से ||

हमेशा   दोस्ती   रक्खी उन्होंने बिजलियों  से  ही |
रहे   जलते   हमेशा   ही   हमारे    आशियाने  से ||

तुम्हारे  रूठ जाने    से बिगड़   जाती  हैं  तदबीरें | 
मेरा  हर  काम बनता है  तुम्हारे मान  जाने  से ||

मुहब्बत की  नहीं ‘सैनी’ने जिससे पूछ लो चाहे |
उसे  फ़ुर्सत   कहाँ   है  पेट  भर रोटी कमाने  से ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

No comments:

Post a Comment