Wednesday, 18 April 2012

घूँट खूँ का


बात  वो  एसे   घुमा  कर  कह गया |
मतलबों  में मैं उलझ  कर रह गया ||

ख़त्म कुछ तो इल्म की हो ये तलब |
तल्ख़ थी बातें जिन्हें मैं   सह  गया ||

उसने फुसलाया मुझे कुछ इस तरह |
ज़ात में उसकी मैं खो कर रह गया  ||

जो  नज़र  आया   उसी  के  सामने |
मैं   सदा जज़्बात  में ही  बह  गया ||

सामने  उनके  उड़े   कुछ   होश   यूँ |
जो न कहना था वही सब कह गया ||

देखकर  आँखों  में उनकी अश्क  मैं |
रेत  की   मीनार  जैसा   ढह   गया ||

इल्म  की तौहीन  देखी आज  जब |
घूँट खूँ का ‘सैनी’पी  के   रह  गया ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

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