बात वो एसे घुमा कर कह गया |
मतलबों में मैं उलझ कर रह गया ||
ख़त्म कुछ तो इल्म की हो ये तलब |
तल्ख़ थी बातें जिन्हें मैं सह गया ||
उसने फुसलाया मुझे कुछ इस तरह |
ज़ात में उसकी मैं खो कर रह गया ||
जो नज़र आया उसी के सामने |
मैं सदा जज़्बात में ही बह गया ||
सामने उनके उड़े कुछ होश यूँ |
जो न कहना था वही सब कह गया ||
देखकर आँखों में उनकी अश्क मैं |
रेत की मीनार जैसा ढह गया ||
इल्म की तौहीन देखी आज जब |
घूँट खूँ का ‘सैनी’पी के रह गया ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
No comments:
Post a Comment