Sunday, 29 April 2012

दौलत


मुझे   हासिल   हुई   जब   से    तेरे  इल्ज़ाम    की  दौलत |
कमाई  थी  जो  मैंने  अब  मेरे  किस   काम   की  दौलत ||

न   जाने   क्यों    है  लोगों  को  ये  इतनी  भूख  पैसे  की |
ज़रा   सा   पेट   है   तो    चाहिए   बस  नाम  की  दौलत ||

तुम्हारे   पास    पैसा    है  तो   फिर    आराम    कैसे  हो |
मैं    फ़ाक़ामस्त     हूँ   तो  पास   है  आराम  की  दौलत ||

खतों   का   था   खज़ाना   पास   मेरे   सब   जला   डाला |
हुई   है  ख़ाक   सब   मेरे  दिल -ए -नाकाम   की  दौलत  ||

बख़ीली   करते - करते   आदमी   की   मौत   आ   जाए |
नहीं कुछ काम आ पायी तो फिर किस काम की दौलत ||

मज़ा   जन्नत   का   है  बस   आपकी   तीमारदारी  में |
अगर कुछ काम आ जायेगी मुझ  से राम   की  दौलत ||

गिना  जाता   है  ‘सैनी ’ दुन्या   के  नामी  अमीरों   में |
पिए  वो आपकी आँखों  से  छलके  जाम   की  दौलत ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी    
   

Friday, 27 April 2012

पत्थर ही रहने दे


मुबारक हो  फ़लक़  तुझको मुझे  कमतर   ही  रहने  दे |
मैं   पत्थर   ठोकरों   का  हूँ  मुझे  पत्थ र  ही  रहने  दे ||

बड़ी  मुश्किल  से  मिल  पायी  तेरे  दीदार  की लज़्ज़त |
इसे  तू  छीन  मत  मुझसे  इसे  मुझ  पर   ही  रहने  दे ||

वो   कहता   है   वफ़ा   मेरी   मैं   कहता   हूँ  वफ़ा  मेरी |
वफ़ाओं   को  तू  आपस  में  यूँ  टकराकर  ही  रहने  दे ||

किया  कुछ  भी  नहीं  पर  नाम  उनका  सुर्ख़ियों  में  है |
बंधा  है  ताज  उसके  सर  तो  उसके  सर  ही   रहने  दे ||

निकल कर मैं चलूँ घर से निकल कर तू भी घर से आ |
चला  आ दोस्त  बनके  दुश्मनी घर  पर  ही  रहने  दे  ||

घिसट कर जा तो सकता है कहीं भी अपनी  मर्ज़ी  से |
परिंदा   है   अपाहिज    क़ैद   से  बाहर  ही   रहने  दे ||

तुम्हारे चाहने वालों की  लम्बी  लिस्ट  है  फिर   तो |
यहीं पर ठीक हूँ मुझको तो बस  दीग़र  ही   रहने  दे ||

अभी तालीम लेकर इनको  मुस्तक़बिल  बनाना  है |
ज़माने से नयी नस्लों को बस बच कर  ही  रहने  दे ||

 सम्भाला  है  क़लम  मैंने  क़लम  हथियार  है  मेरा |
मेरे दुश्मन के हाथों में तो   बस  खंजर  ही  रहने  दे ||

धरम   है   शायरी    मेरा   करम   है   शायरी    मेरा |
ये तख़्त -ओ -ताज तू ही रख मुझे शायर ही रहने दे ||

बड़े   आराम    का   है   ‘सैनी’ मेरा  घर  ये  पुश्तैनी |
बना  मत  इसका  तू बँगला मेरा घर घर ही रहने दे ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 


Thursday, 19 April 2012

मान जाने से


शिकायत मिल रही है रोज़ मुझको दिल दीवाने से  |
नहीं  तुम  बाज़  आते  हो अभी  भी  आज़माने  से ||

मुझे  भी पूछना है आज  तो बस इस   ज़माने   से |
भला क्या फ़ायदा है इश्क़   वालों  को  सताने  से ||

तुम्हारी  लखनऊ  आने की दावत  मान  लूं  कैसे |
शुगर  जाती है बढ़ मेरी दशहरी   आम   खाने  से ||

जलाता  है लहू  मजदूर  दिन भर धुप में जल कर |
जलन  क्यूँ  आपको  है उसके बिरयानी पकाने से ||

उन्हें   बाज़ार    जाना   है  ज़रा  सामान  ला ना  है |
उन्हें तो  चाहिए  छुट्टी   किसी  भी बस बहाने  से ||

वजूद अपना हमेशा दुन्या  में  हम   छोड़  जाते  हैं |
मिटा क्या आज तक कोई किसी के भी मिटाने से ||

हमेशा   दोस्ती   रक्खी उन्होंने बिजलियों  से  ही |
रहे   जलते   हमेशा   ही   हमारे    आशियाने  से ||

तुम्हारे  रूठ जाने    से बिगड़   जाती  हैं  तदबीरें | 
मेरा  हर  काम बनता है  तुम्हारे मान  जाने  से ||

मुहब्बत की  नहीं ‘सैनी’ने जिससे पूछ लो चाहे |
उसे  फ़ुर्सत   कहाँ   है  पेट  भर रोटी कमाने  से ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 18 April 2012

घूँट खूँ का


बात  वो  एसे   घुमा  कर  कह गया |
मतलबों  में मैं उलझ  कर रह गया ||

ख़त्म कुछ तो इल्म की हो ये तलब |
तल्ख़ थी बातें जिन्हें मैं   सह  गया ||

उसने फुसलाया मुझे कुछ इस तरह |
ज़ात में उसकी मैं खो कर रह गया  ||

जो  नज़र  आया   उसी  के  सामने |
मैं   सदा जज़्बात  में ही  बह  गया ||

सामने  उनके  उड़े   कुछ   होश   यूँ |
जो न कहना था वही सब कह गया ||

देखकर  आँखों  में उनकी अश्क  मैं |
रेत  की   मीनार  जैसा   ढह   गया ||

इल्म  की तौहीन  देखी आज  जब |
घूँट खूँ का ‘सैनी’पी  के   रह  गया ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Tuesday, 17 April 2012

जब से तुम्हारे इश्क़ में


जब  से  तुम्हारे  इश्क़   में   मैं  मुब्तिला  हुआ |
काँटा  सभी  की  आँख  का  तब  से  बना  हुआ ||

मंज़ूर    यार   को    न   मेरा    फ़ैसला      हुआ |
साझे   के   कारोबार   का  ये  सिलसिला  हुआ ||

क्या  कोई  अब  मिलेगा  यहाँ  पर  तुम्हे  सुबूत |
गुज़रा  है  इतना  वक़्त   ये  जब  हादिसा  हुआ ||

क्यूँ अब तलक मिली नहीं मुज़रिम को  वो सज़ा |
मुद्दत  हुई   है    जिसका    कभी   फ़ैसला   हुआ ||

अब   आ    गया   तुम्हारी    पनाहों में आख़िरश |
मैं    बेवफ़ा    नहीं  था    तुम्हे    वहम  सा  हुआ ||

तूफ़ान    सा     उठा     दिया    दिल  ने शरीर में |
दो-चार   पल    को    आपसे   मैं क्या जुदा हुआ ||

जो       उनके   हुस्न  पर  कहा है एक –आध शेर |
‘सैनी’  तुम्हारा       शेर   वही   काम   का    हुआ ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
     

तुम्हारी हर अदा


तुम्हारी  हर  अदा  का  ज़िक्र  मेरी  शायरी    में  है |
बड़ी   तफ़्सील  से  लेकिन  बड़ी  ही  सादगी  में  है ||

गुलों की अहमियत  तो  बस  हमेशा ताज़गी  में  है |
गुलों  को  तोडियेगा  मत  शराफ़त  तो  इसी  में  है ||

अगर ये इश्क़ न होता तो मैं  किस  काम  का  होता |
मेरे  हर  काम  की  सूरत  तुम्हारी  आशिक़ी   में  है ||

किसी ने भी दिया मुझको न अब तक इश्क़ का मौक़ा |
कमी  बस   एक   छोटी   सी  ये   मेरी  ज़िंदगी  में  है ||

किये दर पर बहुत सिजदे तुम्हारे आज तक लेकिन |
लगा  अब  ध्यान  मेरा  बस  ख़ुदा  की  बंदगी  में  है ||

तुम्हारी  बात  ही  कुछ  और  है  जो तुम  पे शैदा हूँ |
तुम्हारे  जैसी सच्चाई यहाँ  क्या  हर  किसी  में  है ||

हसीनो  से ,पुलिस  वालों  से ,नेताओं  से जीवन  में |
भलाई   दोस्ती   में   है   न   इनकी   दुश्मनी  में  है ||

अधूरा  हर  तसव्वुर  है  तुम्हारे  बिन  मेरा  तो  अब |
मेरे  हर  काम  में  बरकत   तुम्हारी  हाज़िरी  में  है ||

जहाँ जल्वा  ज़रा  देखा  फिसल  जाता  वहीं  ‘सैनी’|
बुरी  पर  ये  बीमारी  आज  तो  हर  आदमी  में  है ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  

Thursday, 12 April 2012

अदब की भूख


हमारी भी है कुछ ग़लती तुम्हारी भी है कुछ ग़लती |
बजा  कर  देखिये  इक  हाथ  से  ताली नहीं बजती ||

ज़बां पर कुछ है ,दिल में कुछ है चेहरे पर मुखौटा है |
कभी  एसे बशर से  एक  पल  अपनी   नहीं  पटती ||

सदाक़त  से  नहीं  कुछ  आपने  जब वास्ता रक्खा |
वगरना आप  पर  उंगली  ज़माने  की  नहीं  उठती ||

सियासतदाँ  अगर  कुर्सी  का  दामन छोड़  देते  तो |
ये कौमें बेवजह आपस में क्योंकर  रोज़ ही  लडती ||

वजह  है  कुछ  न कुछ इसके तो पीछे सोचना होगा |
गरानी देखिये क्यों दिन -ब –दिन ही जा रही बढ़ती ||

बड़े  ही  नासमझ  हैं   वो  न   समझाने   से  मानेंगे |
हथेली   पर    हमें   मालूम  है  सरसों  नहीं  जमती ||

न  जाने  भूख  है  कैसी  ये  ‘सैनी’को  अदब की अब |
करो कितनी भी कोशिश जो मिटाए  से नहीं मिटती ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी   

Tuesday, 10 April 2012

मेरा दिल


मैं समझाऊँ नहीं  समझे  मेरा  दिल |
तुम्हारे  ही  लिए  मचले  मेरा  दिल ||

करो   इक़रार   तो   नाचे  मेरा  दिल |
मगर  इन्कार  पे  लरजे  मेरा  दिल ||

मेरी छत पर  जो  कागा बोलता  है |
किसी की दीद को तरसे मेरा  दिल || 

तुम्हारी  याद  की  बरसात  लेकर |
घटा घन घोर सा बरसे  मेरा दिल ||

दवा ही क्या दुआ भी  चाहिए  अब |
बिना इनके नहीं धडके  मेरा  दिल ||

सदा  उनके   लिए   ही   सोचता  है |
तरस खाता नहीं मुझ पे मेरा दिल ||

अगर मर्ज़ी मुताबिक़ हो नहीं कुछ |
तभी लड़ बैठता मुझ से मेरा  दिल ||

वजूद इसका बड़ा छोटा है फिर  भी |
करूँ वो ही मैं जो कह दे  मेरा  दिल ||

ज़रा ‘सैनी’तू मुझ से प्यार कर  ले |
घड़ी भर को सही रख ले मेरा दिल ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  

मान जाओ भी


हमारे    पास    आओ      भी |
फ़साना   कुछ  सुनाओ   भी ||

शिकायत जो भी है खुल कर |
ज़रा    हमसे    बताओ   भी ||

हमें   तुम   साथ   में  लेकर |
कहीं    पे   घूम   आओ  भी ||

दीवानों    की    मज़ारों   पर |
दिया  चल  कर जलाओ भी ||

हुनर   है   जो   निहाँ तुम में |
ज़माने   को    दिखाओ  भी ||

भला एसी भी  क्या ख़फ़गी |
ज़रा  सा    मुस्कुराओ  भी ||

मेरी   मजबूरियाँ   समझो |
समझदारी   दिखाओ   भी ||

सताया  है बहुत अब तक |
अरे  अब बाज़ आओ  भी ||

लो  ‘सैनी’ सर झुकाता है |
चलो अब मान जाओ भी ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी